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दिमाग तक खून ले जाने वाली कोई धमनी (आर्टरी/ नस) अगर अचानक से बंद हो जाय या फट जाय तो दिमाग का एक हिस्सा तत्काल काम करना बंद कर देता है, इस स्थिति को ब्रेन स्ट्रोक कहा जाता है I बोलचाल की भाषा में इसे ही लकवा, फालिस, हवा लगना, पक्षाघात और पैरालिसिस भी कहते हैं. अगर धमनी (आर्टरी) बंद होने से दिमाग का हिस्सा मरने लगे तो इसे इस्चिमिक स्ट्रोक कहते हैं वहीँ नस फटने से दिमाग में खून बहने को ब्रेन हेमरेज कहते हैं. अमेरिका में जहाँ अस्सी फीसदी स्ट्रोक इस्चेमिक वाले होते हैं, भारत जैसे विकासशील देशों में हेमोरे जिक स्ट्रोक का प्रतिशत करीब 40 फीसदी है. मेडिकल की भाषा में स्ट्रोक को सरेब्रो वैस्कुलर एक्सीडेंट भी कहते हैं. डॉक्टर गोविन्द माधव ने बताया कि विश्व में हर तीन मिनट में एक व्यक्ति की मौत स्ट्रोक से हो जाती है, जबकि हर 45 सेकंड में किसी न किसी को स्ट्रोक होता है. अमूमन स्ट्रोक होने की संभावना ठंढ के मौसम में सुबह सुबह ज्यादा होती है क्योंकि इसी समय रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) अचानक से बढ़ जाता है.
स्ट्रोक के लक्षण : अगर किसी व्यक्ति को निम्नलिखित में से कोई लक्षण अचानक से दिखने लगे तो स्ट्रोक की संभावना हो सकती है –
किसे हो सकतीये बीमारी : हालाँकि स्ट्रोक किसी भी उम्र में हो सकता है मगर उम्र की ढलान पर इसकी संभावना बढ़ जाती है जब दिमाग की नसें कमजोर होने लगती है. अगर किसी को अनियंत्रित रक्तचाप, मधुमेह (डायबिटीज/ शुगर) या मोटापे की बीमारी हो या व्यक्ति ज्यादा धुम्रपान करता हो तो नसें और ज्यादा कमजोर हो जाती हैं, नतीजन स्ट्रोक की संभावना कई गुणा बढ़ जाती है. ह्रदय रोग से ग्रसित मरीजों में खून के थक्के ज्यादा बनते हैं, इनमे भी स्ट्रोक के रिस्क अधिक होते हैं.
बचाव कैसे करे: किसी भी बीमारी से बचने का एक सबसे सरल उपाय होता है उसके कारणों यानि रिस्क फैक्टर्स से बचना. अब बढती उम्र को तो कोई नहीं रोक सकता मगर ब्लड प्रेशर, शुगर, मोटापा, तनाव- अवसाद, धुम्रपान आदि व्यसन ये सब तो निश्चित तौर पर नियंत्रित किये जा सकते हैं नियमित चेकअप और इलाज के प्रति जवाबदेह ईमानदारी का पालन करके. नियमित व्यायाम, संतुलित आहार-विहार-विचार- निद्रा न सिर्फ स्ट्रोक के खतरे से हमें बचाती है बल्कि लाइफ स्टाइल बेस्ड सैकड़ों अन्य रोगों को भी दूर रखती है.
क्या स्ट्रोक का उपचार संभव है: डॉक्टर गोविन्द माधव ने बताया कि अगर मरीज बीमारी शुरू होने के साढ़े चार घंटे के अन्दर अस्पताल पहुँच जाये तो उसे खून का थक्का गलने वाली दवाई डी जाती है जिस से लगभग 80% स्ट्रोक के लक्षण ठीक हो जाते हैं, इस उपचार को स्ट्रोक थ्रोम्बोलिसिस कहते हैं. मगर दुर्भाग्य कि झरखनद के लगभग नब्बे फीसदी स्ट्रोक मरीज बीमारी को शुरुआत में पहचान ही नहीं पाते या फिर पहचान भी लें तो झोलाछाप/ नीम हाकिम के चक्कर में पड़कर कीमती समय और कभी कभी मरीज की जान भी गँवा देते हैं. याद रखें ‘टाइम इज ब्रेन’ यानि स्ट्रोक की शुरुआत के बाद हर सेकंड कीमती है. अगर कोई मरीज देर से भी पहुंचे तो सही उपचार से स्ट्रोक के गंभीर परिणाम जैसे एस्पिरेशन नेमोनिया, बेड सोर, ब्रेन इडिमा, मिर्गी आदि पर काबू पाया जा सकता है और सबसे जरुरी कि स्ट्रोक दुबारा ना हो उसका उपाय किया जाता है. प्रशिक्षित थेरापिस्ट की निगरानी और मार्गदर्शन में फिजियोथेरेपी के द्वारा कमजोर पड़ गए अंग को दुबारा क्रियाशील बनाया जाता है.